भजन, लोकगीत और संविधान — निकिता ने इन्हें जोड़ा बदलाव की एक नई धुन में।
- We, The People Abhiyan
- Jun 29
- 4 min read
जब मुबशीरा कमरे में आई, तो सब चुप हो गए। निकिता के परिवार की बातें रुक गईं और माहौल अचानक असहज हो गया। निकिता ने मुबशीरा को अपने घर बुलाया था — वह उनकी मुस्लिम सहकर्मी थीं, जिनसे निकिता की मुलाकात "क्रॉस लर्निंग मीटिंग" के दौरान हुई थी। निकिता के लिए ये एक आम बात थी, लेकिन उनके ब्राह्मण परिवार के लिए नहीं। फिर शुरू हुई फुसफुसाहटें, ताने — “अब मंदिर मत जाना, मस्जिद ही चले जाओ।” किसी ने “लव जिहाद” की बात भी कह दी।
निकिता हैरान थीं, लेकिन डरी नहीं। उन्होंने चुपचाप लेकिन मजबूती से अपनी जगह बनाई। उस शाम कुछ बदला — सिर्फ निकिता के लिए नहीं, बल्कि उनके परिवार के लिए भी। उन्हें पहली बार उन सीमाओं का एहसास हुआ जिन्हें वे अब तक स्वाभाविक मानते आए थे।
यह घटना कोई एक दिन की बात नहीं थी।
निकिता, मध्य प्रदेश के हरदा ज़िले की एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार से आती हैं। उनके जीवन के दो चेहरे थे — एक जो परंपराओं में बंधा था, और दूसरा जो फैलोशिप्स और सामुदायिक काम के ज़रिए जागा था। बचपन से ही उन पर पाबंदियाँ थीं — तबला सीखने से रोका गया, पुरुषों के साथ काम करने पर ताने, और हर काम के साथ शादी की चिंता। लेकिन इन्हीं बंधनों के बीच, संगीत उनकी आवाज़ बना। भजन, लोकगीत, और गंगौर जैसे त्योहारों में उन्हें दिखा कि कैसे हमारे रोज़मर्रा के गीतों में ही हमारे समाज के मूल्य छिपे होते हैं।
यही समझ उन्हें लोकविधान, डिग्निटी फेलोशिप और ART-19 जैसी फैलोशिप्स तक ले गई। वहां उन्होंने सीखा कि कैसे संगीत के ज़रिए इज़्ज़त, बराबरी और प्रतिरोध की बात की जा सकती है — खासकर उन महिलाओं के लिए जो खुलकर बोल नहीं सकतीं। बीते छह सालों में उनके लिए सामुदायिक काम केवल काम नहीं, एक निजी यात्रा भी रही है। ऐसे गांवों में काम करते हुए जहाँ एससी समुदायों को मंदिर में नहीं जाने दिया जाता, खेतों में खाना-पानी अलग परोसा जाता है, और जाति से नज़दीकियाँ तय होती हैं — निकिता ने गीत, संवाद और अपनी मौजूदगी से धीरे-धीरे इन दीवारों में दरारें डालनी शुरू कीं।
महिलाओं, युवाओं और बच्चों के साथ उन्होंने "ढाई आखर", "तालीम" और "शहरों" जैसे मंचों पर काम किया। वे सुनती थीं, जोड़ती थीं, और धीरे-धीरे बदलाव का बीज बोती थीं — भले ही उनका अपना परिवार शुरू में विरोध करता रहा। एक बड़ा मोड़ तब आया जब निकिता ने "वी द पीपल अभियान" का प्रशिक्षण लिया। पहली बार उन्हें सिर्फ एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि एक नागरिक के रूप में खुद को देखने का नज़रिया मिला। उन्होंने दलित और आदिवासी समुदायों के जमीनी नेताओं की कहानियाँ सुनीं — जो उनकी अपनी उलझनों जैसी थीं।
वह इस बात से बहुत प्रभावित हुईं कि यहाँ भाषा कितनी सहज और सम्मानजनक थी — जहाँ संवाद तोड़ने का नहीं बल्कि जोड़ने का ज़रिया था। "संविधान का निर्माण" वीडियो और केस स्टडीज़ उनके साथ रह गए — जिन्हें बाद में उन्होंने अपने सेशनों में इस्तेमाल किया।
प्रशिक्षण के बाद, उनकी सोच में साफ़ फर्क आया। उन्होंने महिला सरपंचों से बात करना शुरू किया, खासकर वाल्मीकि समाज की महिलाओं से, और ग्राम पंचायत में उनकी भागीदारी पर चर्चा की। उन्हें समझ आया कि महिलाएं चुनकर आने के बावजूद भी मीटिंग की तारीखों से अंजान होती हैं, और वहाँ पुरुष ही चर्चा करते हैं।
धीरे-धीरे, एक-एक करके महिलाएं आने लगीं।
और उनका खुद का परिवार? वहाँ भी बदलाव आया — धीरे, मगर सच्चा बदलाव। उनके भाई ने, जो कभी बहुत सख़्त थे, अब दूसरों के साथ पानी बाँटना शुरू कर दिया, वह बातें सुनने लगे। “बदलाव धीमा है,” निकिता कहती हैं, “पर हो रहा है।” संगीत, बैठकों और व्यक्तिगत बातचीत के ज़रिए निकिता ने अब तक 5,000–6,000 लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित किया, और 8,000 से ज़्यादा को प्रेरित किया है।
लेकिन आँकड़ों से कहीं बढ़कर मायने रखती हैं वह जगह — जो वे बनाती हैं, जहाँ परंपरा और बदलाव साथ खड़े हो पाते हैं। वे आज भी स्वयं सहायता समूहों, आंगनवाड़ियों, और युवाओं के मंचों जैसे CYF (Community Youth Forum) के साथ काम कर रही हैं — ऐसे मंच ढूँढते हुए जहाँ कला और अधिकार एक साथ चल सकें।
जब उनसे पूछा गया कि उन्हें आगे क्या चाहिए, तो उन्होंने कहा,
“हम जो लोकल स्तर पर काम कर रहे हैं, उसे WTPA और बाकी लोगों से जोड़ने की ज़रूरत है। ट्रेनिंग अच्छी होती है, लेकिन ऐसी जगहें और हों जहाँ हम आपस में बात कर सकें, सोच सकें, और साथ आगे बढ़ सकें।” उनकी उम्मीद सीधी है लेकिन गहरी — कि उनकी जैसी कहानियाँ अपवाद नहीं, सामान्य बनें। और एक दिन, जब कोई मुबशीरा घर में दाखिल हो, तो घर चुप न हो, बल्कि मुस्कराकर कहे — “स्वागत है।”
निकिता की कहानी सिर्फ दीवारें तोड़ने की नहीं है — ये दिखाती है कि असली बदलाव वहीं शुरू होता है जहाँ असहजता, साहस से मिलती है — और जहाँ मूल्य सिर्फ सीखे नहीं, जिए जाते हैं।
The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.
Comments