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"हम ही हर बार क्यों जाना पड़ता ह?"

  • Writer: We, The People Abhiyan
    We, The People Abhiyan
  • 7 days ago
  • 3 min read

य सवाल 2018 की एक शाम को कल्पतीश क कानों म गज रहा था। वो अपन गाँव क कछ नौजवानों क साथ बठ थ, जो महीनों की गन्ना कटाई क बाद वापस लौट थ। सब थक हए थ, महनत स काम कया था लकन पस कम मल। कई तो अब भी कशोर उम्र क थ और पढ़ाई छोड़ चक थ। य चक्र हर साल दोहराता था — फसल खराब हई, पलायन हआ, फर वापसी और चप्पी। "सफ लोग गाँव छोड़त नही," कल्पतीश कहत ह, "व य मानना भी छोड़ दत ह क कछ और ममकन ह।" कल्पतीश खद भी इसी चक्र म पल-बढ़ थ। उनक गाँव म 40 बिस्तयों ह, जो सालों स सखा, बीमारी और अनिचतता को झलती चली आ रही ह। उनक पता खतहर मज़दर थ, मा घर सभालती थीं। कल्पतीश अपन परवार क पहल इसान थ, िजन्होंन मास्टस की डग्री ली—वो भी दो बार। लकन बाकी लोगों की तरह उन्होंन बाहर जाकर नौकरी नही की। उन्होंन वही रुकन का फसला कया। वो गाँव क स्कल म पढ़ान लग। बच्चों क लए स्टडी सकल और कहानी सत्र चलान लग। लकन असर नही दखा। "लोग सवधान म क्यों दलचस्पी ल," वो सोचत थ, "जब घर म पीन का पानी भी नही ह?" फर भी, वो लग रह। एक बठक हई, फर दसरी। एक लड़की अपनी बहन को लकर आई। छोटी-छोटी चगारया थी — परत उनम आग नही थी। 2022 म चीज़ बदली, जब उन्होंन सवधान प्रचारक की ट्रनग ली। पहली बार उन्ह लगा क सवधान कोई दर की चीज़ नही ह — य तो वही भाषा थी जो वो पहल स जानत थ। जात, ज़मीन, पानी, पलायन — सब जड़ा था एक चीज़ स: इज़्ज़त, हक, पहचान की कमी स। "मन अकला महसस करना छोड़ दया," वो कहत ह। "सवधान सफ एक कताब नही रहा — वो एक नज़रया बन गया, एक तरह का मौन साहस।" अब वो नए तरीकों क साथ लौट। बरगद क पड़ क नीच प्रस्तावना पर चचा। भजन और अनच्छद 15 पर बहसों क साथ यवाओ की बठक। घमत समदाय क लोक कलाकारों को बलाया गया — जो अक्सर ‘बाहरी’ मान जात ह। दीवाली का त्यौहार नए तरीक स मनाया गया — दलत और गैर-दलत यवा न साथ म खाना बनाया, दीय जलाए, और सरकारी योजनाओ की मांग करत हए एक चट्ठी लखी। धीर-धीर परवतन भी आया। एक लड़का जो पढ़ाई छोड़ चका था, अब पीएचडी कर रहा ह। एक लड़की न तय कया क जब तक कॉलज खत्म नही होगा, शादी नही करगी। कछ परुषों न पलायन नही कया — बिल्क एक हल्थ कप की योजना बनाई। "हम सवधान को लोगों क बीच नही लाए," वो कहत ह। "हमन महसस कया क वो तो पहल स ही हमार गीतों, हमारी भख और हमार सवालों म मौजद था।" लकन सब लोग सहमत नही थ। कछ बज़ग को शक हआ। इवट्स स पहल साम्प्रदायक तनाव होन लग। परानी जातीय सोच सामन आई। "य कौन होता ह अधकारों की बात करन वाला?" "त्योहारों म जात की बात क्यों लाता ह?" — ऐस सवाल उठ फर भी, कल्पतीश नही रुक। "अगर आप ज़्यादा ज़ोर दत हो, तो लोग दरवाज़ा बद कर दत ह," वो समझात ह। "लकन अगर आप बस मौजद रहत हो, तो धीर-धीर लोग खद ही दरवाज़ा खोलन लगत ह।" आज उनक 40 गाँवों क 120 स ज़्यादा यवा आपस म जड़ हए ह — व्हाट्सऐप ग्रप्स, लोकल इवट्स और मौसमी मलन कायक्रमों क ज़रए। बदलाव हर बार दखता नहीं। कई बार वो भाषा म होता ह, सवालों म होता ह, और उस छोट स रुकाव म होता ह — जब कोई हार मानन स पहल सोचता ह। "पहल लोग पछत थ, ‘राशन कस मलगा?’ अब वो पछत ह, ‘नीत कस बदल?’ यही बदलाव ह, िजसक लए म जीता ह। जो सफर एक सवाल स शरू हआ था — "हम ही क्यों जाना पड़ता ह?" — उसका जवाब आज भी परा नही मला ह। पलायन खत्म नही हआ। लकन अब कछ बदल गया ह। यवाओ को अब य यक़ीन ह क बाहर जाना ही अकला रास्ता नही ह। और यही स, कल्पतीश मानत ह, बदलाव की शरुआत होती ह।


The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.

 
 
 

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