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मेरा नाम नीरू दिवाकर है।

  • Writer: We, The People Abhiyan
    We, The People Abhiyan
  • 2 days ago
  • 3 min read

मैं भिंड से भोपाल आया था, पिता के पुराने ट्रंक और मां की गोदी का भरोसा लिए। तब मैं छोटा था, लेकिन समझ गया था कि यह सफर सिर्फ शहर बदलने का नहीं, पूरी ज़िंदगी बदलने का था।

भोपाल की खूबसूरत झीलों के पीछे जो दुनिया है, उसे कम लोग जानते हैं। हम सीधे उसी दुनिया में उतरे—श्यामला हिल्स की घनी बस्ती कृष्णा नगर में। बांस की झुग्गी, टीन की छत और बाहर बहता नाला — यहीं से मेरी असली ज़िंदगी शुरू हुई।


पिता दिहाड़ी पर जाते थे, मां दूसरों के घर काम करती थीं, और मैं… सपनों के पीछे दौड़ता था।

सरकारी स्कूल में दाखिला मिला। किताबें, दोस्त मिले, पर एक चीज़ हमेशा गायब थी—सुनवाई। किसी को फर्क नहीं पड़ता था कि हम क्या सोचते हैं, क्या पूछना चाहते हैं। फिर भी मैंने पढ़ाई जारी रखी, 12वीं पूरी की और इंजीनियरिंग कॉलेज पहुंच गया।


लेकिन क्लास में बैठते हुए मन अक्सर वहीं कृष्णा नगर की गलियों में खो जाता था, जहां पानी के लिए रोज़ लड़ाई होती थी, बिजली एक ख्वाब थी, और बच्चों की पढ़ाई एक मज़ाक।

एक दिन मैंने खुद से पूछा—क्या मेरी पढ़ाई सिर्फ नौकरी पाने के लिए है, या मैं लौटकर कुछ बदल सकता हूं?

मैंने इंजीनियरिंग छोड़ दी। लोग कहते थे, ‘पागल है’। पर मैं जानता था, यह पागलपन नहीं, पैशन है।

मैं वापस बस्ती आया और वहीं के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। जो स्कूल नहीं जाते थे, काम में लगे थे, या लड़कियां जिन्हें कभी स्कूल का मौका नहीं मिला—मैंने उन्हीं से शुरुआत की। लेकिन सबसे पहले ज़रूरत थी एक जगह की।


बस्ती के बीच दशहरे का चौक खाली पड़ा था। उसी मिट्टी को स्कूल बनाने की ठानी। लोगों से बात की, दीवारें खड़ी कीं, चंदा लिया, और ‘फिआ फेलोशिप’ मिली—जिसने इस सपने को पंख दिए। फेलोशिप के पैसे से शेड लगवाया, फर्श पर दरी बिछाई, और 10x15 फीट का अस्थाई स्कूल बन गया—नीरू का स्कूल।

‘वी द पीपल अभियान’ और ‘फिआ फाउंडेशन’ की संवैधानिक समझ और नागरिकता पर प्रशिक्षण ने मुझे नई दिशा दी।


यह प्रशिक्षण मेरे लिए आईने जैसा था—जिसमें मैंने समाज के साथ खुद को भी नए नजरिए से देखा। मैंने सीखा कि किसी समस्या को सिर्फ भावनाओं से नहीं, संवैधानिक अधिकारों की नजर से देखना चाहिए।

अब जब मैं बच्चों को पढ़ाता हूं, तो केवल गिनती या अक्षर नहीं सिखाता—मैं उन्हें सोचने की आज़ादी देता हूं।

जब कोई बच्चा पूछता है— मां ही खाना क्यों बनाती हैं?, हम पेड़ क्यों नहीं काट सकते?, स्कूल जाना क्यों ज़रूरी है?, घर के फैसले में हमारी राय क्यों नहीं ली जाती?


तो मैं जवाब नहीं देता, उन्हें संविधान के मूल्यों से जोड़ता हूं—समानता, न्याय, बंधुता, अभिव्यक्ति की आज़ादी।

मैं बच्चों को सिखाता नहीं, उनके साथ समझता हूं। मैं चाहता हूं कि वे जिम्मेदार नागरिक बनें, लेकिन बिना दबाव के। उनकी उम्र, समझ और जिज्ञासा के हिसाब से उन्हें संवैधानिक सोच की ओर ले जाता हूं।

मेरे स्कूल में अब वो बच्चा भी आता है जिसे प्राइवेट स्कूल ने समर कैंप की फीस न भरने पर निकाल दिया था। उसकी मां कहती है, “वो अब ज्यादा खुश है, घर के कामों में भी बात करता है, सोचने लगा है।”

नीरू का स्कूल केवल पढ़ाई की जगह नहीं—यह बच्चों के विचारों की प्रयोगशाला बन गया है।

यहां सवाल उठते हैं, बातचीत होती है, और हर बच्चा खुद को ज़रूरी महसूस करता है। मुझे यकीन है—जब ये बच्चे अपने हक, अपनी भूमिका और अपने सपनों को समझेंगे, तब न सिर्फ इस बस्ती की तस्वीर, बल्कि उसकी तक़दीर भी बदल जाएगी।


मैं नीरू दिवाकर हूं — और मेरा सपना है एक ऐसा समाज जहां हर बच्चा सिर्फ पढ़ा-लिखा नहीं, जागरूक और ज़िम्मेदार नागरिक बने।


The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.

 
 
 

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