अब्दुल रहीम: वो औरत जिसने ख़ुद को मिटाने से इनकार कर दिया
- We, The People Abhiyan

- Sep 11
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अब्दुल अक्सर उस पार्क की बेंच पर लौट आती है। बच्चों को खेलते देखती है, औरतों-मर्दों को हँसते-बोलते, अपनी दुनिया में खोए हुए। और फिर चुपचाप वहीं बैठ जाती है जहाँ कभी उन्हें अपनापन पाने के लिए जूझना पड़ा था, जहाँ वो अपनी पहचान से जूझती, अकेलेपन से लड़ती रही थी। बेंच आज भी उसकी दोनों शक्लों को पहचानती है - वो टूटी हुई बच्ची जो यहाँ आती थी और वो अडिग औरत जो वो अब बन चुकी है।
“उन्होंने कहा था मैं शापित हूँ,” अब्दुल याद करती है। “उन्होंने मुझे कमरे में बंद कर दिया, कहा कि अपने अंदर की लड़की को भूल जाओ। लेकिन जिस दिन मैंने पहली बार साड़ी पहनी, उसी दिन जान गई कि अब पीछे नहीं लौट सकती।” ये वो ग़ुस्से से नहीं, बल्कि हल्की सी मुस्कान के साथ कहती हैं, वो मुस्कान जो आग से गुज़रने के बाद ही जन्म लेती है।
ये आग बहुत बचपन से ही शुरू हो गई थी। जबलपुर में जन्मी और बचपन में ही अनाथ हो चुकी अब्दुल अपने मामा के सख़्त और परंपरागत घर में पली। शुरू से ही उसका शरीर, उसकी चाल-ढाल, उसकी आवाज़ अलग थी। आईने में झाँकती और जवाब ढूँढती, मगर जवाब आसान नहीं थे। उसके हर कोमल इशारे पर घर में मार पड़ती। स्कूल में भी हाल बेहतर नहीं था। लड़के हँसते, छेड़ते, और शिक्षक मुँह फेर लेते। ताने रोकने के लिए अब्दुल ने लड़के का किरदार निभाने की कोशिश की। पढ़ाई में मन लगाया, पोस्ट-ग्रेजुएशन किया, नौकरियों के लिए कोशिश की। लेकिन हर इंटरव्यू बंद दरवाज़ों पर खत्म होता। घर लौटती तो ताने और तेज़ हो जाते। जैसे हर रास्ता उसके लिए बंद हो चुका हो।
उम्मीदें टूट रही थीं। चौदह की उम्र में वो जान चुकी थी कि वो लड़की है, लेकिन फिर भी खुद को लड़के की भूमिका में धकेलती रही। समाज ने दोनों शक्लों को नकार दिया - तो फिर वो कौन थी? चुप्पी और शर्म में कैद एक औरत। “ट्रांसजेंडर” या “एलजीबीटीक्यू” जैसे शब्द उसके पास नहीं थे। उसे लगता था, वो दुनिया में अकेली है। उसका सहारा वही पार्क की बेंच बन गई, जहाँ वो घंटों बैठी रहती, प्रकृति को निहारते हुए और सोचते हुए कि क्या उसकी ज़िंदगी की कोई कीमत भी है।
इसी बेंच पर उसकी मुलाक़ात उनसे हुई ट्रांसजेंडर औरतें से, जो ज़ोर से हँसतीं, खुलकर जीतीं और उसे “बहन” कहकर बुलातीं। उन्होंने उसकी कंधों पर साड़ी डाली और पहली बार अब्दुल ने खुद को पूरा महसूस किया। उसकी पहचान को अपनाया गया, उसे जगह मिली।
मगर ये सुख भी ज़्यादा दिन नहीं टिक सका।
मामा को पता चला। वो डेरे तक पहुँचे, उसे घसीटकर घर लाए, पीटा और कमरे में बंद कर दिया। “तुझ पर जादू-टोना हुआ है,” उन्होंने कहा, या फिर दावा किया कि ये बीमारी है। व्यक्त के साथ कमरा पिंजरा बनने लगा। एक रात, हिम्मत जुटाकर अब्दुल भाग निकली।
कहाँ जाती? उसने एक टोली में जगह ली और सड़कों पर भीख माँगने लगी। कोई और रास्ता नहीं था, मगर दिल बगावत कर रहा था। “ये मेरी ज़िंदगी नहीं हो सकती,” उसने ठाना। आँखों में हिम्मत और मन में नयी जिद के साथ उसने छोटे-छोटे काम शुरू किए - सड़कें झाड़ना, पेड़ लगाना, नर्मदा की सफ़ाई करना। 2009 में एक एनजीओ ने उन्हें एचआईवी अवेयरनेस के लिए बुलाया। अब्दुल घर-घर गई, रोकथाम की बातें कीं, जाँच और काउंसलिंग कराई। उसने देखा कि उसका अपना समुदाय कैसे बीमारियों और शर्म में छोड़ दिया जाता है। तभी उसने कसम खाई कि अब कोई भी उतना अकेला महसूस नहीं करेगा जितना उसने किया था। 2011 तक, उसने साथियों के साथ मिलकर “अरमान फाउंडेशन” बनाया। पहली बार जबलपुर ने ट्रांसजेंडर औरतों को भीख नहीं माँगते, बल्कि दफ़्तर चलाते, कंप्यूटर पर काम करते, अधिकार के साथ बोलते देखा। शहर को नज़रें बदलनी पड़ीं।
सफ़र यहीं नहीं रुका। 2019 में अब्दुल ने फिया फैलोशिप के लिए आवेदन किया, तब वे दूसरे राउंड तक पहुँच गई। पैसे नहीं थे, डर बहुत था, लगभग छोड़ ही देती। मगर समुदाय ने चंदा इकट्ठा किया, हिम्मत दी और उसे आगे बढ़ाया। उसका चयन हुआ। उसी साल, उसने “वी द पीपल अभियान” के साथ ट्रेनिंग की। वहाँ संविधान उसके सामने आईने की तरह खुल गया। हर घाव, हर अपमान, हर खामोशी, उन सबका जवाब उसके पन्नों में पहले से लिखा था। “ये किताब हमारी ढाल है,” उसने जाना। संविधान की ताक़त से उसने अपने सफ़र में नये पड़ाव जोड़े। उसने समुदाय को ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन एक्ट समझाया, पहचान पत्र बनवाने में मदद की, क़ानूनी मान्यता की पहली सीढ़ी।
आज, अब्दुल सिर्फ़ एक ट्रांसजेंडर औरत नहीं हैं जिसने ज़िंदगी झेली। वो एक कार्यकर्ता हैं, संस्थापक हैं, नेता हैं। अधिकारियों के सामने खड़ी होती हैं, समुदाय की बैठकों में बोलती हैं, और दूसरों को सिखाती हैं कि क़ानून और गरिमा के साथ कैसे लड़ना है। वो अब अदृश्य नहीं हैं।
फिर भी, कभी-कभी वो उसी पार्क की बेंच पर लौट आती है। अब इसलिए नहीं कि खोई हुई है, बल्कि इसलिए कि वहीं से उसकी शुरुआत हुई थी। कभी वो वहाँ बैठकर सोचती थी कि क्या उसकी ज़िंदगी की कोई कीमत है। आज जब कोई अकेला ट्रांस बच्चा पास आकर बैठ जाता है, तो अब्दुल मुस्कान बाँट देती है और सोचती है -
अब किसी ट्रांसजेंडर को अकेले नहीं लड़ना पड़ेगा। कभी नहीं।
The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.

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