कदम बराबरी की ओर
- We, The People Abhiyan
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“तू हर घड़े में हाथ क्यों डाल रहा है?” इन शब्दों ने पवन को उलझन और गुस्से से भर दिया।
राजस्थान के सीकर जिले के मूण्डरू गांव में उस समय मूंगफली की खुदाई का मौसम था। पवन, हमेशा की तरह, सूखी मूंगफली बटोरने खेत गया था। काम के बीच प्यास लगी, तो वह उस मटके से पानी पीने गया जहाँ बाकी लोग बैठकर पानी पी रहे थे। पहली बार, माहौल में चुप्पी थी - एक असहज चुप्पी। लेकिन दूसरी बार, किसी ने उसे मटका छूने से रोक दिया।
“तुझे पता है तू कहाँ से आता है और क्या है?” उन्होंने उसे उसकी जाति याद दिला दी। पवन घर लौटा, माता पिता को पूरी बात बताई और कसम खाई कि अब उस खेत में कभी काम नहीं करेगा। लेकिन सवाल और वो शब्द मन में रह गए - आख़िर क्यों?
गांव में वह अक्सर संजू नाम के एक व्यक्ति को लोगों के साथ गंभीर मुद्दों पर चर्चा करते देखता — बलात्कार के मामले, दलितों पर अत्याचार, अन्याय की कहानियाँ, जिन पर कोई बात नहीं करता था। एक दिन पवन ने देखा कि वे लोग हाल ही में हुए बलात्कार के मामले को लेकर नारे लगा रहे थे और उपखंड अधिकारी को ज्ञापन सौंप रहे थे। पवन भी उनके साथ जुड़ गया। उसे वहाँ न केवल अपने साथ हुए अन्याय, बल्कि आस-पास हो रहे अन्यायों से लड़ने के बारे में खुलकर बात करने का ज़रिया मिला। यहीं से पवन ने अम्बेडकर युवा शक्ति संगठन से जुड़ाव शुरू किया।
संगठन के साथ काम करते हुए वह नए शब्दों, विचारों और चर्चाओं से घिरे रहने लगे। यह सब उनके लिए नया था, और उनके मन में ढेरों सवाल पैदा करने लगा। वह पास के स्कूलों और गांवों में जाकर संविधान की प्रस्तावना के पोस्टर लगाता। लेकिन उनके मन में लगातार सवाल रहते - यह प्रस्तावना क्यों? इन शब्दों का मतलब क्या है? हमें इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए?
वह संजू को ग्राम पंचायतों में दलितों की अनुपस्थिति, महिलाओं की भागीदारी की कमी और गांव की अन्य समस्याओं पर बात करते हुए सुनता। पवन सुनता, लेकिन उससे जुड़ नहीं पाता।
बदलाव तब आया जब पवन ने वी द पीपल अभियान व मानवीय मूल्य संस्थान की एक संगठित ट्रेनिंग में भाग लिया। वहां संविधानिक मूल्यों को मुद्दों से जोड़ना पवन के लिए एक बड़ा मोड़ था। उसे संगठन की बैठकों में उठे मुद्दे याद आने लगे। आइलैंड एक्टिविटी में हर समूह को एक काल्पनिक द्वीप के लिए संविधान बनाना था। जब पवन के समूह ने समानता, गरिमा और बराबरी की आवाज को प्रमुखता दी और देखा कि वही बातें भारतीय संविधान में पहले से मौजूद हैं, तो जैसे धीरे-धीरे चीज़ें समझ में आने लगीं। बातें जुड़ गईं।
पवन ने बदलाव की शुरुआत खुद से की। संगठन में वह विभिन्न पहचानों से जुड़े लोगों के साथ काम करने लगा, साथ बैठकर खाना खाता, बातचीत करता और यह महसूस किया कि हर कोई बराबर है। "अपन को सबको लेकर चलना है" - यह उनकी सोच बन गई।
अब पवन और कुछ दलित युवा नियमित रूप से ग्राम सभा की बैठकों में जाने लगे। जो पहले सिर्फ कागजों पर होता था, वह अब हकीकत में बदलने लगा। पवन गांव वालों से सवाल पूछने, योजना और प्रक्रिया समझने के लिए प्रेरित करता। अब लगभग 15 ग्रामीण, जिनमें दलित भी शामिल हैं, बैठक में हिस्सा लेते हैं। चाय और हस्ताक्षर से आगे बढ़कर पंचायत अब चर्चा और जवाबदेही की जगह बन गई है।
लेकिन एक कमी अब भी है - महिलाओं की भागीदारी।यह सिर्फ उनके गांव तक सीमित नहीं है, आसपास के गांवों में भी महिला सरपंचों की जगह उनके पति ही असली मुखिया की भूमिका निभाते हैं।पवन ने इसे चुनौती देना शुरू किया। एक बार उसने अपने गांव के सरपंच के पति से कहा: "सरपंच तुम नहीं हो। उन्हें बोलने दो।"
और आखिरी बैठक में, महिला सरपंच ने खुद मीटिंग की अध्यक्षता की। ऐसा लगा जैसे सरपंच की कुर्सी को आखिर उसका असली अधिकारी मिल गया हो।
पवन की यात्रा अपमान से शुरू हुई थी - लेकिन वहीं पर वह नहीं रुका। उसने ठान लिया कि यह दोहराया न जाए। और इस यात्रा में, संविधान उसके सबसे मजबूत औजार बन गए और उसके मूल्य, उसके सबसे अच्छे साथी।
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