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दीपक तले अंधेरा होता है

  • Writer: We, The People Abhiyan
    We, The People Abhiyan
  • Sep 30
  • 3 min read
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पुष्पा मुश्किल से तेरह साल की थीं, जब उन्होंने कुछ ऐसा किया जो उनके गाँव में किसी लड़की ने कभी करने की हिम्मत नहीं की थी। एक दोपहर, जब वह अपनी सहेलियों के साथ सड़क पार कर रही थीं, एक लड़का उनका पीछा करने लगा। वह बेहिचक बदतमीज़ी करने लगा।


 गुस्से में पुष्पा ने उसे ज़ोर से थप्पड़ मार दिया - ऐसा झटका जिसकी उसने कभी उम्मीद नहीं की थी।


घर लौटते समय उनके मन में सवाल उमड़ रहे थे - परिवार क्या सोचेगा? गाँव वाले क्या कहेंगे? पिताजी क्या सोचेंगे? उस शाम, जब उन्होंने सारी बात पिताजी को बताई, तो वे चुपचाप सुनते रहे और फिर बोले “जब तुम्हारे साथ ग़लत हो, तो आवाज़ उठाना सही है।”  ये शब्द हमेशा उनके साथ रहे, और इन शब्दों ने उन्हे अक्सर उन जगहों पर बोलने कि हिम्मत दी जहाँ लड़कियों से चुप रहने की उम्मीद की जाती थी।


लेकिन यह तो बस शुरुआत थी।

 पुष्पा अपने गाँव की पहली लड़की बनीं जिसने स्नातक की पढ़ाई पूरी की।

 पहली जिसने स्कूटी चलाई।

 पहली जिसने गाँव से बाहर जाकर काम किया।

 और पहली जिसने एक संस्था, जन शिक्षण केंद्र को चलाया। अब वह इस विरासत को आगे ले जाने के लिए दृढ़ थीं, ताकि गाँव की दूसरी महिलाएँ भी स्वतंत्रता के रास्ते पर चल सकें।


पुष्पा को अपने पिता की इस सोच से गहरी प्रेरणा मिली कि “तरक्की के लिए हमें यह पूछते रहना चाहिए कि हम कहाँ हैं और कितनी दूर जाना बाकी है”। इसी सिद्धांत को अपनाते हुए वह हमेशा आगे बढ़ने के रास्ते तलाशती रहीं - कभी कॉलेज की छुट्टियों में गाँव की महिलाओं को पढ़ाते हुए, कभी कंप्यूटर सीखते हुए, कभी अपने पहले सामुदायिक स्वास्थ्य प्रोजेक्ट में, और अब संगठन की सचिव के रूप में। वह लगातार सोचती रहीं कि संगठन के मिशन को और मज़बूत कैसे बनाया जाए - लोगों की क्षमता बढ़ाना ताकि वे अपने अधिकार माँग सकें, सरकारी योजनाओं तक पहुँच पाएँ, और पंचायतों को जवाबदेह बना सकें। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि औरतों को किनारे किया जाता है, उनका मज़ाक उड़ाया जाता है और उन्हें चुप कराया जाता है, जैसा उनके साथ भी हुआ था। शिक्षा के साथ-साथ वह चाहती थीं कि महिलाएँ खुद के लिए खड़ी हों, उस हिम्मत से जिसे उनके पिता ने उनमें बोया था।


उनके विज़न को नई दिशा मिली वी द पीपल अभियान की ट्रेनिंग से। एक सिटिजन अड्डा में हिस्सा लेने के बाद वह गहराई से प्रभावित हुईं और दो प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए, जिनमें टीम के साथ-साथ गाँव की महिलाओं और युवाओं ने भी भाग लिया। संविधान की प्रस्तावना ने उन्हें गहराई से छुआ। तभी से उन्होंने हर कार्यक्रम की शुरुआत या समाप्ति उसी से करना शुरू किया - पंक्ति दर पंक्ति उसे पढ़ते और दोहराते हुए, लोगों को अपने अधिकार समझने और ज़रूरत पड़ने पर उनकी रक्षा करने के लिए तैयार करते हुए। अब यह उनके लिए बैठकों और आयोजनों में भी एक साथी की तरह हो गया है।


आज पुष्पा का सपना है क़ानून की पढ़ाई करने का। उन्हें विश्वास है कि क़ानूनी ज्ञान उनके काम को और धार देगा। वह कहती हैं कि “अगर हमें अपने अधिकार पता हैं, तो अधिकारियों को सुनना ही पड़ेगा”। उन्होंने अपने पिता को यह सवाल झेलते हुए देखा था - क्या आपकी पत्नी और बहन पढ़ी-लिखी हैं? जिसके कारण उनके पिता ने ठान लिया था कि जवाब हाँ होना चाहिए, न सिर्फ अपने परिवार के लिए बल्कि गाँव की हर लड़की के लिए। 1996 में उन्होंने इस संकल्प को साकार किया और जन शिक्षा केंद्र को पंजीकृत कराया।


उनकी मृत्यु के बाद पुष्पा ने देखा कि उनकी मृत्यु ने सिर्फ उन्हें ही नहीं, बल्कि उनके घर, गाँव और संगठन को भी हिला दिया था। लोग उनके परिवार के पास आए, समर्थन दिया और उनके पिता का ऐसे याद किया जैसे वह उनके अपने हों। तभी उन्हें अहसास हुआ कि उनके पिता की सच्ची विरासत उनके लोग थे, और उन्होंने उसे जीवित रखने का संकल्प लिया। आज जब वह संगठन चला रही हैं, तो उन्हें अक्सर लगता है कि उनके पिता गर्व से मुस्कुरा रहे हैं।


यही सोच उन्हें आगे बढ़ाती है, चाहे रास्ते में कितनी ही चुनौतियाँ क्यों न आएँ। कई बार उनका काम याद दिलाता है कि एक औरत का संगठन की बागडोर सँभालना आज भी कुछ लोगों को स्वीकार नहीं है। उन्हें अपनी स्वतंत्रता, घर की कमाने वाली होने और देर तक काम के लिए बाहर रहने पर ताने सुनने पड़ते हैं। फिर भी वह डटी रहती हैं - अपने आप पर विश्वास और इस दृढ़ निश्चय से कि उनके पिता का सपना आगे बढ़ता रहे और उनके लोग उम्मीद से भरे रहें।



The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.


 
 
 

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