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सुमित का चुना हुआ रास्ता : संविधान कि ओर

  • Writer: We, The People Abhiyan
    We, The People Abhiyan
  • Sep 30
  • 3 min read
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महाड़ में बस अड्डा ढूँढते समय जब सुमित ने कुछ बच्चों से रास्ता पूछा तब एक बच्चा बोला, “छोटा पाकिस्तान कि यह गली पार करो, इसके  बाद बस अड्डा दिख जाएगा।”यह गली मुस्लिम इलाक़े की थी। यह सुनकर सुमित को अजीब लगा, पर वे कुछ बोले नहीं और आगे बढ़ गए। परंतु यह चुप्पी उन्हें भीतर से परेशान करती रही। वह बार-बार सोचते रहे -  मैंने बच्चों को रोका क्यों नहीं? मैं चुप क्यों रहा? ऐसा फिर न हो, इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए?


यह सवाल सुमित कि ज़िंदगी का हिस्सा बने हुए थे। कॉलेज में एनएसएस से जुडने के बाद से ही उन्होंने ऐसी चीज़ें नोटिस करनी शुरू की थीं, जो शायद पहले अनदेखी रह जाती थी - जैसे घर में काम करने वालों को अलग कप देना, अपने धर्म पर छिपा-छिपा गर्व करना, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बनी छोटी-बड़ी असमानता। इन्हें देखकर उनके मन में बेचैनी होती थी - मैं क्या करूँ? कैसे करूँ?


उनके सामने यह मौका आया संविधान प्रचारक के रूप मैं - एक युवा आंदोलन, जिसका मक़सद था लोगों की ज़िंदगी में संविधान को लाना। सुमित को यह काम रोचक लगा। तब तक संविधान उनके लिए बस एक किताब था, जिसके बारे मैं उन्हे ज्यादा खबर नहीं थी। लेकिन ट्रेनिंग ऑफ ट्रेनर्स (TOT) और फिर वी, द पीपल अभियान की ट्रेनिंग करने के बाद उन्होंने संविधान को नए नज़रिए से देखना शुरू किया। अब यह उनके लिए साथी बन गया था - एक चश्मा, जिससे वे खुद को और दुनिया को देखने लगे।

लेकिन शुरुआत आसान नहीं थी। महाड़ में जब उन्होंने संविधान पर ट्रेनिंग दी, तो सामने आया - गहरी जातिगत खाई और धर्म पर टिकी सोच। लेकिन  इस बार सुमित चुप नहीं रहे। उन्होंने रास्ते निकाले कि कैसे लोगों को जोड़ें। उन्होंने देखा कि गाँव में लोग अक्सर शिवाजी महाराज और अंबेडकर को लेकर बहस करते हैं। तब उन्हें ख्याल आया - क्यों न दोनों की बातों को जोड़कर संविधान समझाया जाए?


उन्होंने बताया कि शिवाजी कहते थे कि हर कोई अपने धर्म का पालन करे, बिना लड़ाई के।” यही तो धर्मनिरपेक्षता है। और अंबेडकर की बराबरी की सोच, शिवाजी के विविधता-सम्मान से मेल खाती है। धीरे-धीरे लोग संविधान को पराया नहीं, अपनी संस्कृति का हिस्सा मानने लगे। अब सुमित इस सोच पर एक किताब भी लिख रहे हैं - “शिव राय से भीम राय”


इसका असर उन्हे ढाई आख़िर प्रेम का मार्च में दिखा। सालों से बँटे गाँवों ने मिलकर यात्रियों को ठहराया, खाना दिया, ख्याल रखा। उन दिनों उन्होंने भाईचारे को जीया। सुमित के लिए यह सबूत था कि अगर संविधान को संस्कृति और भाषा से जोड़ा जाए, तो लोग उसे अपनाते हैं। अब वे आदिवासी इलाक़ों में भी यही करते हैं, जैसे घोटुल (साथी चुनने की आज़ादी) और प्रकृति के सम्मान को संविधान से जोड़ना।

पिछले छह सालों में सुमित ने लगभग 4,000 लोगों को प्रशिक्षित किया है, जिनमें से 100 - 200 को क़रीब से गाइड किया। आज वे पुणे में इकोनेट में फ़ेलोशिप कोऑर्डिनेटर हैं और साथ ही संविधान प्रचारक के साथ जुड़े हुए हैं। वे उस रास्ते से संतुष्ट हैं, जो उन्होंने खुद चुना - उस तयशुदा रास्ते से अलग, जहाँ सुरक्षित नौकरी, शादी और विदेश जाने का सपना होता है। उन्होंने अध्यापक और मैनेजमेंट का काम किया, लेकिन महसूस हुआ कि यह उन्हें कभी संतोष नहीं देगा। उन्होंने अपनी राह बनाई और आज भी वह खुद से यही सवाल करते है - “क्या मैं अपने बनाए रास्ते पर चल रहा हूँ या नहीं?”


घर में भी उन्होंने बदलाव लाए हैं। अब काम करने वालों के लिए अलग बर्तन नहीं रखे जाते। हर समुदाय के दोस्त घर आते हैं। औरतों को परिवार के फ़ैसलों में बराबर सुना जाता है। छोटे-छोटे बदलाव, पर सुमित के लिए इन्हीं में संविधान ज़िंदा है। उनके लिए संविधान से रिश्ता अपने आप बनकर नहीं आता, यह धीरे-धीरे बनता है - कभी बनता है, कभी नहीं। लेकिन उनकी आशा साफ़ है, कि उनके अनुभवों से ज़्यादा से ज़्यादा लोग संविधान से अपना रिश्ता जोड़ पाएँ, अपनी भाषा और अपनी समझ से।


The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.


 
 
 

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