जब एक गाँव ने साथ चलना सीखा
- We, The People Abhiyan

- Dec 5
- 3 min read

कहानी शुरू हुई एक मिट्टी के घड़े से।
जीवराम चारागरा ने अपनी जेब से पैसे देकर एक भील दुकानदार की दुकान पर मिट्टी का घड़ा रख दिया। राजस्थान के नाना गाँव में तब पीने का पानी भी जाति से बँटा हुआ था। भील और गरासिया एक ही बर्तन से पानी नहीं पीते थे। गरासिया खुद को ऊँची जाति मानते थे और भीलों के साथ बैठना भी पसंद नहीं करते थे। इसी परंपरा को बदलने के लिए, जीवराम ने दुकान पर सबके सामने एक घड़ा रख दिया। रोज़ वह घड़ा पानी से भरता - कोई भी पिए, भील या गरासिया, औरत या मर्द। शुरू में लोग झिझके। पर धीरे-धीरे, एक-एक कर सब झुककर उसी घड़े से पानी पीने लगे।
यह सिर्फ प्यास बुझाने का मामला नहीं था , यह सम्मान की बात थी। और जीवराम के लिए, यह उस दीवार में पहली दरार थी जो पीढ़ियों से खड़ी थी।
जीवराम चाहते थे कि यह बदलाव बस एक घटना न रहे, बल्कि एक आदत बने। वे चाहते थे कि लोग खुद अपने भीतर से बदलाव शुरू करें। कुछ समय पहले वे वी द पीपल अभियान और आस्था संस्थान की एक संविधान प्रशिक्षण में शामिल हुए थे। वहाँ उन्हें अहसास हुआ कि लोगों को जोड़ने की असली ताकत ‘मूल्य’ होते हैं। “पहले मैं बिना किसी आधार के काम कर रहा था,” वे कहते हैं। “फिर समझ आया कि आधार तो संविधान के मूल्य होने चाहिए - समानता, भाईचारा और गरिमा। जब लोग इनसे जुड़ते हैं, तो असर लंबे समय तक रहता है।”
यही सोच उनके अगले कदम की नींव बनी। वे चाहते थे कि एक समस्या खत्म हो जाने के बाद भी लोग जुड़े रहें। इसलिए पानी के घड़े के बाद उन्होंने भोजन को लेकर भेदभाव खत्म करने की कोशिश शुरू की। चूँकि वे पहले से गाँव में एक परियोजना पर काम कर रहे थे, लोग उन पर भरोसा करते थे। कई बार वे दोनों समुदायों के लोगों को साथ बैठकर खाने के लिए प्रेरित करते। धीरे-धीरे भील और गरासिया एक साथ बैठकर खाना खाने लगे। जो शुरुआत में एक पहल थी, वो बाद में उनकी दिनचर्या बन गई।
भाईचारे की यह भावना 2016 में और भी गहरी हो गई। जीवराम ने पहली बार गाँव में गणेश चतुर्थी को सामूहिक त्योहार के रूप में मनाने का विचार रखा, ताकि लोगों में एकता की भावना बढ़े। कोई फंड नहीं था, तो उन्होंने युवाओं को जोड़ा। युवाओं ने खुद कमेटी बनाई और 40,000 रुपये से ज़्यादा चंदा इकट्ठा किया। जीवराम ने उन्हें मार्गदर्शन दिया, लेकिन जिम्मेदारी उन्हीं को सौंपी। त्योहार बहुत सफल रहा। विसर्जन के दिन पूरा गाँव एक साथ था, भील, गरासिया, बच्चे, बुज़ुर्ग, सबने मिलकर नाच गाया, पूजा की, और साथ खाना खाया।जो कहानी एक मिट्टी के घड़े से शुरू हुई थी, वह उस दिन पूरे गाँव के साथ चलने के दृश्य पर खत्म हुई।
आज जीवराम आस्था संस्थान के साथ एक फ़ेलो के रूप में काम कर रहे हैं, जहाँ वे मनरेगा के ज़रिए समुदायों को रोज़गार दिला रहे हैं। अब तक उन्होंने 1,051 से ज़्यादा परिवारों को 100 दिन का काम दिलाने में मदद की है। लेकिन उनके लिए यह काम सिर्फ़ रोज़गार तक सीमित नहीं है - यह सम्मान और समानता की लड़ाई है। वे कहते हैं, “जब परिवार कमाते हैं, तो बच्चे स्कूल जा सकते हैं, इलाज करा सकते हैं। वरना गरीबी का चक्र कभी नहीं टूटता।”
राजस्थान के पाली ज़िले के एक छोटे से आदिवासी गाँव से आने वाले जीवराम के पास बचपन में न बिजली थी, न अच्छे शिक्षक, न साफ़ पानी। शिक्षा पाने के लिए उन्हें और उनके परिवार को नाना कस्बे में बसना पड़ा। संघर्ष से मिली उस शिक्षा ने उन्हें यह समझ दी कि जब तक बच्चे बेहतर माहौल में नहीं सीखेंगे, तब तक असमानता बनी रहेगी।
अब यही सोच उनका अगला रास्ता तय कर रही है - अरावली विकास संस्थान , एक ऐसा संगठन बनाना जो लोगों को हर मुश्किल में एक साथ बाँधकर रखे। जीवराम का सपना है कि वे कुछ ऐसा बनाएँ जो लोगों के साथ हमेशा खड़ा रहे, चाहे कैसी भी चुनौती आए।
उनकी ज़िद, उनकी बोलने की हिम्मत, उनके नए रास्ते खोजने का जुनून - यही उनके सफर की असली डोर है। और वे जानते हैं कि यह डोर अब टूटेगी नहीं।
वे मुस्कराते हुए कहते हैं,“मैं अभी भी सीख रहा हूँ। लेकिन रुकूँगा नहीं।”
The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.

%20(4).png)


Comments