पांच रोटी, मैं और न्याय
- We, The People Abhiyan
- 3 days ago
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"उस दिन कुछ अंदर से टूट गया था। मैं खुद से शर्मिंदा थी। क्या एक औरत का सम्मान उसकी जाति से तय होता है?"
यह एहसास था सोनाली देवी का, जो झारखंड के बोकारो ज़िले के एक गांव अंगवाली उत्तरी में रहती हैं। जब उन्होंने देखा कि जो दीदियां उनका ख़याल रखने आई थी, उन्हें सिर्फ़ जाति के आधार पर अलग नज़र से देखा जा रहा है, तब वह बाक़ी लोगों की तरह वो चुप नहीं रह सकीं।
जब सोनाली गर्भवती थीं, तब एक पिछड़ी जाति की महिला उन्हें तेल मालिश के लिए आती थी। लेकिन जैसे ही वो चली जाती, सोनाली से कहा जाता कि जिस जगह वो बैठी थी, उसे साफ़ करो। वजह?
"सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने छू लिया था।"
ये बात सोनाली को असहजता से भर देती थी। वो जानती थीं कि दीदियों के लिए उनके मन में सच्चा सम्मान है, और अब वो इस भेदभाव को तोड़ना चाहती थीं। उन्होंने एक छोटा-सा, लेकिन साहसिक कदम उठाया—अगली बार जब वो दीदी आईं, तो उन्हें ज़मीन पर नहीं बैठने दिया, बल्कि कुर्सी पर बैठाया। लेकिन इस बार भी जैसे ही वो गईं, सोनाली से कहा गया कि कुर्सी को धो दो।
ये घटना उनके दिल में रह गई। लेकिन उन्होंने इसे अनदेखा नहीं किया। "तब मैंने तय किया—मैं इस चुप्पी का हिस्सा नहीं बनूंगी।"
यहीं से शुरू हुई सोनाली देवी की यात्रा। उन्होंने 2018 में PRADAN के साथ काम करना शुरू किया और तब से महिलाओं को जोड़ना, ट्रेनिंग देना और समुदाय में जागरूकता फैलाना उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया। वो लगातार महिलाओं को संविधान में मिले समान अधिकारों के बारे में बताती हैं—खासकर कि स्वयं की देखभाल और लैंगिक न्याय कितना ज़रूरी है।
धीरे-धीरे संविधान उनके लिए एक ताकतवर औज़ार बन गया। लेकिन इसकी असली ताक़त उन्होंने तब महसूस की, जब उन्हें We, The People Abhiyan (WTPA) की ट्रेनिंग में गई। उस ट्रेनिंग में उन्हें पहली बार ये एहसास हुआ कि संविधान सच में उनके साथ है। धारा, अनुच्छेद, अधिकार—ये अब सिर्फ़ सुनने वाले शब्द नहीं रहे, ये अब उनकी आवाज़ बन चुके थे।
अब सोनाली क़ानूनी धाराएं लिखकर आवेदन तैयार करती हैं, जिससे लोगों की समस्याएं ज़्यादा प्रभावी ढंग से सुलझाई जा सकें। वो घरेलू हिंसा, बाल विवाह और महिलाओं के अधिकारों जैसे मुद्दों पर गांवों में खुलकर बातचीत करती हैं—समानता और न्याय के आधार पर।
लेकिन ये रास्ता आसान नहीं रहा। कई बार उन्हें घंटों चलकर पंचायत बैठकों में जाना पड़ा। उन्होंने ऐसे समाजिक सोच से भी लड़ा जो कहती है कि औरत का काम है बस घर और बच्चों का ध्यान रखना। अपनी यात्रा में उन्होंने कई महिलाओं से मुलाकात की, जो अपने पतियों और बच्चों की देखभाल को सबसे ऊपर रखती थीं और अपने अधिकारों को समझने में रुचि नहीं लेती थीं। उन्हें जोड़ना, उन्हें समझाना—यह उनके काम का सबसे मुश्किल हिस्सा रहा।
एक किस्सा याद करते हुए सोनाली बताती हैं कि उन्होंने रोटी के ज़रिए लोगों को लैंगिक समानता समझाई।
वो पूछती हैं, "अगर घर में पांच रोटी हो और पति और तीन बच्चे हों, तो रोटी कैसे बांटोगी?" एक महिला ने कहा, "दो पति को, एक-एक बच्चों को, मैं नहीं खाऊंगी। पति खेतों में काम करता है।" मैंने कहा, "और तुम्हारा काम? घर, बच्चे, सब तुम संभालती हो। तुम्हारा हक भी उतना ही है। संविधान कहता है—सबको बराबरी का अधिकार है।"
ऐसे ही सोनाली देवी ने अपने अंदाज़ में गहरे समाजिक सोच को चुनौती देना शुरू किया। उनके तरीक़े रसोई से शुरू होते हैं - घरेलू जीवन के दिल से और सीधे संविधान के रास्ते तक पहुंचते हैं।
इस सफ़र में उन्होंने 2000 से ज़्यादा औरतों तक अपनी बात पहुंचाई। तमाम विरोध और सामाजिक दवाबों के बावजूद, आज ग्राम सभा की बैठकों में उनकी आवाज़ सुनी जाती है। वो पंचायत, ब्लॉक एडमिनिस्ट्रेशन, ज़िला कलेक्टर और ज़रूरत पड़ने पर पुलिस के साथ भी मिलकर काम करती हैं।
एक चुप्पी से शुरू हुई बात, अब एक बेख़ौफ़ आवाज़ बन चुकी है। उन्होंने न सिर्फ दीदियों को उनका सम्मान दिलाया, बल्कि औरतों को ये भी समझाया कि पांच रोटियों में उनका हिस्सा भी बराबर का है।
हर बातचीत, हर क़दम के साथ सोनाली देवी धीरे-धीरे बराबरी का मायना बदल रही है - घर में, गांव में, और औरतों के दिलों में।
The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.
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