ये सब लिखा कहाँ है? -संविधान की गूंज, औरतों की ज़ुबानी
- We, The People Abhiyan
- Sep 25
- 3 min read
मध्य प्रदेश के डिंडोरी ज़िले के उदेरा गाँव में रातें औरतों के लिए नींद नहीं लाती थीं, बल्कि लाती थी नई मुश्किलें। आधी रात के बाद, कभी एक बजे, कभी दो या तीन बजे, औरतें अपने घर से निकलतीं, सिर पर मटके रखकर किलोमीटरों दूर पानी भरने जातीं। पानी जैसी ज़रूरी चीज़, जो उन्हें मिलनी चाहिए थी, वही उनके लिए सबसे बड़ी कमी बन गई थी।
कागज़ों पर नल-जल योजना बनी तो हुई थी, लेकिन असलियत में सिर्फ़ थकान और इंतज़ार ही हाथ लगता था।समस्या को लेकर कई आवेदन किए गए, लेकिन अधिकारी सुनते ही नहीं थे। जवाब सिर्फ़ चुप्पी थी। तभी सुहानिया दीदी ने ठान लिया कि अब कुछ करना होगा।
वी द पीपल अभियान और प्रदान (PRADAN) की ट्रेनिंग ने उन्हें एक नया औज़ार दिया - संविधान। पहली बार उन्होंने संविधान पढ़ा, मौलिक अधिकार समझे, और जाना कि गरिमा, समानता और बंधुत्व सिर्फ़ शब्द नहीं हैं, बल्कि बदलने के औज़ार हैं। वहीं उन्होंने ये भी सीखा कि असरदार आवेदन कैसे लिखे जाते हैं।
ट्रेनिंग के बाद, आठ और औरतों के साथ मिलकर सुहानिया दीदी ने अपनी पहली लड़ाई शुरू की - पानी की लड़ाई।पहले की तरह आवेदन भेजने के बजाय, इस बार उन्होंने एक अलग राह अपनाते हुए पूरा सर्वे किया - औरतें कितनी दूर तक चलकर पानी लाती हैं, कौन से कुएँ और नल चालू हैं और कौन से बंद, और योजना में लिखा हुआ व असलियत में दिया हुआ कितना अलग है। फिर उन्होंने एक आवेदन तैयार किया जिसमें संविधान की कॉपी लगाई और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) को भी जोड़ा।
जब वो PSC (लोक सेवा आयोग) दफ़्तर पहुँचे, तो अधिकारी फ़ाइल देखकर हैरान रह गया।उसने कहा – “ये कहाँ से सीख कर आई हो? औरतें तो बड़ी जागरूक हो गई हैं!”
औरतों सिर्फ यहीं रुकने वाली नहीं थीं। उन्होंने रिसीविंग की तारीख़ की माँग भी की और इसका असर तुरंत दिखा। अगले ही दिन सर्वे हुआ और कुछ दिनों में मरम्मत भी शुरू हो गई। जहाँ नल माँगे थे, वहीं नए नल लग गए। इसका असर यह हुआ कि गाँव के वही लोग जो पहले शक करते थे, अब उनकी ताक़त देख हैरान थे। सब उनके जज़्बे की तारीफ़ करने लगे।
सुहानिया दीदी के लिए ये जीत सिर्फ़ पानी तक सीमित नहीं थी। इस जीत ने उन्हे विश्वास दिलाया कि सामूहिक प्रयास और संविधान की ताक़त सच में असर डाल सकते हैं। वो अब गर्व से कहती हैं – “एक साथ काम करने से विभागों पर असर पड़ता है।”
इस वाकये से प्रेरित होकर उन्होंने और औरतों को सिखाना भी शुरू किया। संविधान अब उनके लिए कोई दूर की किताब नहीं था, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा हुआ था। वो घर-घर जातीं, औरतों और उनके परिवारों से बात करतीं, भरोसा बनातीं और धीरे-धीरे गहरी सामाजिक समस्याओं पर बातचीत शुरू करतीं।
बाद में जब वो जन साहस के डिग्निटी फेलोशिप प्रोग्राम से जुड़ीं, तो उन्होंने और मजबूती से जाति और लिंग से जुड़ी नाइंसाफ़ियों को चुनौती देना शुरू किया। क्यों विधवाओं को तिरस्कृत किया जाता है जबकि आदमी आराम से दोबारा शादी कर सकते हैं? क्यों जाति के नाम पर तय होता है कि कौन किसके साथ बैठकर खा सकता है?ये सवाल उनकी सबसे बड़ी ताक़त बने और वो इन्हे हर बार पूछतीं - “ये सब लिखा कहाँ है?”
आज तक सुहानिया दीदी छह हज़ार से ज़्यादा औरतों को ट्रेनिंग दे चुकी हैं। हर औरत से वो व्यक्तिगत जुड़ाव बनाती हैं। सफ़र आसान नहीं था - लोग उनके पीछे बातें करते, कहते कि वो औरतों को ग़लत राह दिखा रही हैं, जाति के ढाँचे को तोड़ रही हैं। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी, क्योंकि उन्हें पता था बदलाव में वक़्त लगता है। जो चीज़ उन्हें आगे बढ़ाती रही, वो था संविधान पर विश्वास और अपने काम से कमाया हुआ भरोसा। उन्होंने हर छोटे संघर्ष को संविधान से जोड़कर दिखाया कि नीतियों का ज़िंदगी पर कितना बाद प्रभाव पड़ सकता हैं। नल-जल योजना इसका सबसे मज़बूत उदाहरण बनी – सबूत बनी कि सामूहिक एक्शन और संविधान साथ हों, तो नतीजे मिलते हैं।
आज भी वो लगातार औरतों को ट्रेनिंग देती हैं। हर सत्र में वो अधिकारों, नीतियों और संविधान पर चर्चा छेड़ देती हैं। लोग मदद के लिए उनके पास आते हैं, और वो हर किसी की मदद करने की पूरी कोशिश करती हैं।सुहानिया दीदी अपनी ज़िंदगी संविधान के मूल्यों के साथ जीती हैं - और दूसरों को भी यही रास्ता दिखाती हैं।
The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.
Comments