top of page

लोगों में मेहनत की कमी नहीं थी, उन्हें बस अपने हक़ का पता नहीं था

  • Writer: We, The People Abhiyan
    We, The People Abhiyan
  • 2 days ago
  • 3 min read

“लोग इसलिए गरीब नहीं थे कि उन्होंने मेहनत नहीं की। वो इसलिए पीछे रह गए क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि उनका हक़ क्या है।” ये बात महेंद्र बारूपाल को तब समझ आई, जब एक दिन वो स्थानीय रोज़गार कार्यालय में पंजीकरण कराने गए और वहाँ मज़दूरी कार्ड के बारे में पता चला। यह कार्ड सिर्फ रोज़गार की गारंटी नहीं देता था, बल्कि उसमें बीमा, बच्चों के लिए छात्रवृत्ति और कई अन्य अधिकार भी जुड़े हुए थे—जो उनका हक़ था, लेकिन जिससे वो अब तक अनजान थे।


यह बात महेंद्र को भीतर तक छू गई। उन्होंने सबसे पहले खुद का कार्ड बनवाया, और फिर गांव के बाकी लोगों को इसके बारे में बताया। उसी साल, उन्होंने पचास लोगों की मदद की और अट्ठाईस बच्चों के लिए छात्रवृत्तियां सुनिश्चित कीं। और फिर, सिर्फ 2024 में ही उन्होंने 150 से ज़्यादा छात्रवृत्तियों की प्रक्रिया में गांववालों का साथ दिया।


दूसरों की मदद करने से उन्हें एक नया आत्मविश्वास मिला, एक ज़िम्मेदारी का भाव। “जब कोई मेरे पास अपनी परेशानी लेकर आता है और मैं उसकी मदद कर पाता हूं, तो लगता है कि मैंने सच में कुछ मायने रखने वाला किया है,” वो कहते हैं। समय के साथ, गांव में कोई भी सरकारी योजना या समस्या हो, लोग सबसे पहले महेंद्र के पास आते हैं। “मैंने कभी योजना बनाकर ये सब शुरू नहीं किया, लेकिन अब लोग मुझ पर भरोसा करते हैं—और वही मुझे आगे बढ़ने की ताक़त देता है।”


महेंद्र ने अपनी कोशिशों को और आगे बढ़ाया। वो ई-मित्र ऑपरेटर बन गए और आधार कार्ड, राशन कार्ड, जॉब कार्ड से लेकर तमाम सरकारी योजनाओं के आवेदन में लोगों की मदद करने लगे। 2022 में, उन्होंने सूचना एवं रोज़गार अधिकार अभियान से बतौर ज़िला कार्यकर्ता जुड़ाव किया। उसी समय वो School for Democracy के फेलो भी बने और We, The People Abhiyan (WTPA) की ट्रेनिंग में शामिल हुए।

इस ट्रेनिंग का जो हिस्सा उनके भीतर सबसे गहराई से बैठा, वो था—आधिकारिक आवेदन कैसे लिखे जाएं। वो पहले से ही काफी सक्रिय थे, लेकिन अब उनके पास एक नई भाषा थी: संविधान की। “पहले हम बस जाकर कहते थे कि ये कर दो, अब हम अधिकार से लिखते हैं—समस्या को अधिकार से जोड़कर,” वो बताते हैं। उसी ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने अपने वार्ड में सड़क बनवाने का आवेदन लिखा। मंजूरी मिली, और सड़क बनी भी। “पहले संविधान मुझे बहुत दूर की चीज़ लगती थी। अब लगता है कि ये मेरे हाथ में है, और मैं इसका इस्तेमाल कर सकता हूं।”


महेंद्र के लिए पहल करना कोई नई बात नहीं थी। बहुत पहले, आठवीं के बाद उन्होंने आर्थिक तंगी की वजह से स्कूल छोड़ दिया था। फिर वो जयपुर गए और एक सुरक्षा गार्ड की नौकरी करने लगे। वहां उनकी मुलाकात एक रिटायर्ड आर्मी अफसर से हुई, जिन्होंने कहा—“तू दोबारा पढ़, ये तेरा अंत नहीं है।” महेंद्र ने वो बात दिल से लगा ली। वो गांव लौटे, दसवीं की पढ़ाई दोबारा शुरू की और पूरी की। इसके बाद बी.ए. की डिग्री भी ली और तकनीकी प्रशिक्षण भी।


महेंद्र का मानना है कि जानकारी को सिर्फ अपने तक सीमित रखना गलत है। उन्होंने जो कुछ सीखा, उसे सिर्फ समझा नहीं, बल्कि अपने काम में उतारा। उन्होंने दो सरकारी स्कूलों में ‘शिक्षा जागृति मंच’ शुरू किया—जहां पढ़ाई में अच्छा करने वाले बच्चों को सम्मानित किया जाता है और परिवारों को पढ़ाई का महत्व समझाया जाता है। इसके साथ ही उन्होंने अपने वार्ड, गांव और आसपास की बस्तियों में कई व्हाट्सएप ग्रुप शुरू किए हैं, जिनसे सैकड़ों लोग योजनाओं, शिकायतों और सरकारी सूचना से जुड़े रहते हैं। आगे वो चाहते हैं कि इस तरह की ट्रेनिंग गांव-गांव में हो, वो भी हिंदी में। “लोग सीखना चाहते हैं,” वो कहते हैं, “बस उन्हें सीखने का सही तरीका चाहिए।”


हालांकि ये सब आसान नहीं रहा। गांव के सरपंच की उदासीनता और भ्रष्ट व्यवस्था से लगातार जूझना पड़ा। “वो अमीर हैं, चुनाव जीतते हैं, लेकिन काम में दिलचस्पी नहीं लेते,” महेंद्र कहते हैं। पहले इस सब से उन्हें बहुत गुस्सा आता था। लेकिन ट्रेनिंग के बाद उन्होंने प्रतिक्रिया देना सीखा। “अब मैं रुककर सोचता हूं—सही तरीका क्या है?” उन्होंने अपने वार्ड में एक नाले के निर्माण के लिए श्रमदान करवाया, और पंचायत से आंशिक फंडिंग भी जुटाई।


अब महेंद्र खुद एक चुने हुए वार्ड सदस्य हैं—375 वोटरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन उनका नज़रिया अब भी ज़मीन से जुड़ा है। “मैं गांव से बाहर, खेत में रहता हूं। लेकिन मेरा काम गांव के लोगों के साथ है।” उनके लिए खेती और सक्रियता—दोनों ज़रूरी हैं। चाहे अगली फसल बोना हो या किसी का फॉर्म भरवाना, उनका मकसद एक ही है—कि उनके आस-पास के लोग अपने हक़ जानें और निडर होकर उन्हें इस्तेमाल करें।

“मैं अपनी कहानी खुद लिख रहा हूं—संविधान की भाषा में,” वो कहते हैं, “और चाहता हूं कि बाकी लोग भी ऐसा करें।” The above story has been written and published with the explicit consent of the individual involved. All facts presented are based on WTPA's direct interaction with the individual, ensuring accuracy and integrity in our reporting.

 
 
 

Recent Posts

See All
मेरा नाम नीरू दिवाकर है।

मैं भिंड से भोपाल आया था, पिता के पुराने ट्रंक और मां की गोदी का भरोसा लिए। तब मैं छोटा था, लेकिन समझ गया था कि यह सफर सिर्फ शहर बदलने का...

 
 
 

Bình luận


bottom of page